Tuesday, June 12, 2012







जानलेवा  यें  तन्हाईया  नहीं  भाती
क्यूँ  सदा  भी  कोई  इधर  नहीं आती 

एक  जरा  सी  किरण  भी  उजाले   की
इस तीरगी  मैं  नज़र  नहीं  आती 

कुछ  तेरा  गम  कुछ  अपनी  मसायल
नींद  अब  शब भर  नहीं  आती 

जब  आने  का  वादा कर  जाता  है  वो
बस  फिर  सहर  नहीं  आती 

वो  जो  कहते  थे  हरदम  हूँ  साथ
ख्वाबो  मैं  भी  शक्ल नज़र  नहीं  आती 

दिल  बेकरार  पुरजोर  हो चला  तेरा
 
बहलने  की  सूरत  नज़र  नहीं  आती 






जिंदगी   फिर  आज  पास  से  गुजर  गई  दोस्त
तन्हा  हूँ  मै  हकीकत  सामने  आ गई दोस्त
मेरी  बांहों  मैं  तडफी    वो  नन्ही  सी  जान
कज़ा  मेरे  जीने  का  सबब बता  गई  दोस्त ...
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वो  आजकल  बहुत झुंझलाए  हुए  है
समझते  क्यूँ नहीं  दिल  अपना  गंवाए  हुए  है
गुस्सा  उनका  खुद्बाखुद जाहिर  कर   
रहा   है
 जैसे प्यार  हो  गया  हो  और  छुपाए हुए  है