स्त्री विमर्श दो स्तरों पर सामने आता है। एक सामाजिक स्तर पर व दूसरा पारिवारिक स्तर पर । दोनों ही स्तरों पर अपनी-अपनी तरह से काफी आंदोलन हुए हैं तथा चल रहे हैं । सामाजिक स्तर पर जंहा स्त्री के राजनैतिक,व्यवसायिक व समाज से जुड़ें हक़ों के मुद्दे हैं। तो पारिवारिक स्तर पर घर में उसका स्थान व् उसके साथ किया जा रहा व्यवहार महत्वपूर्ण है। अगर हम पारिवारिक स्तर पर बात करें तो आखिर इस पूरे प्रकरण में अपने हक़ों तथा किसी भी प्रकार के दुर्व्यवहार के लिए भय या असुरक्षा हमें पुरुष के ही किसी रूप से है।
यह एक मूक व सतत आंदोलन भी रहा है । हमारे पास आज बहुत सारे अधिकार हैं । जो हमें पिछली आंदोलनरत पीढ़ियों की मुखरता ने प्रदान किये हैं। ये रातों रात होने वाला परिवर्तन नहीं है । हम आज अपनी आवाज़ मुखर करते हैं तो हमें सकारात्मक परिवर्तन मिलने में समय लगेगा । हम उसका फायदा कम या बिलकुल न उठा पाएं ऐसा हो सकता है किन्तु आने वाली पीढ़ियां उस परिवर्तन से जरूर लाभान्वित होती हैं।
ये सही है की हर नयी पीढ़ी के लिए आज़ादी के मायने बदल जाते हैं। पर ये भी सही है कि अपनी हद और जद अब हमें खुद ही निर्धारित करनी होंगी । अपने अधिकारों का उपभोग करते हुए अब हमे थोड़ी चतुरता से काम लेना होगा।
किसी भी समाज में आने वाला परिवर्तन उसके प्राणियों की सोच पर निर्भर करता है और उनकी सोच को प्रभावित करने वाले दो कारक धर्म व दर्शन हैं । धर्म व् दर्शन को बदलना तो संभव नहीं पर धर्म व् दर्शन की शिक्षा को देशकाल व आज की आवश्यकता अनुरुप ग्रहण करने का, समझने का, परिवर्तन यदि आ जाये तो काफी हद तक स्त्री के प्रति समाज व परिवार के नजरिये को बदला जा सकता है।
ये हम महिलाओं पर भी निर्भर करता है कि हम जो हमे मिला है उसका सदुपयोग करें और जो चाहिये उसके लिए सजग रहें । ताकि आने वाली पीढ़ियों के लिए एक ऐसा समाज रच सकें जिसकी सोच प्रारंभिक स्तर से ही भिन्न हो ।
यह परिवर्तन परिवार के स्तर से शुरू कर दिया जाये तो आशा की जा सकती है कि फल सकारात्मक होगा । हमारे यंहा परिवार के पालन-पोषण की जिम्मेदारी माँ पर होती है । यदि हर माँ अपने बच्चे को शुरू से ही स्त्रिओं का आदर करना सिखाए व परिवार के बच्चों के बीच किसी भी तरह का भेदभाव न करे तथा न उसे बढ़ावा दे तो निश्चय ही आने वाली पीढ़ी एक जागरुक व समानता के हामी नागरिकों की स्वतः ही होगी ।
ये चतुराई हम महिलाओं को ही अब करनी होगी । अपने परिवार में तो हम इसके सकारात्मक परिवर्तन पाएंगे ही अपितु समाज पर भी इसका अच्छा प्रभाव पड़ेगा |
ये सही है कि ये कहना जितना आसान है करना उतना सरल नहीं है क्योंकि एक स्त्री पर एक तो बहुत सारे सामाजिक दबाव होते हैं, सदियों से चली आ रही रूढ़िवादी परम्पराएं भी हैं। जो उसे खुद को खुद की बनाई बेड़ियों में जकड़ने का काम करती हैं । जिससे कंई बार वह स्वयं अपनी ही जाति के विरुद्ध होती है ।
किन्तु फिर भी ये प्रयास धीरे-धीरे ही सही कम-कम ही सही एक बड़ा परिवर्तन लान में सफल होगा । घड़ा बूंद-बूंद से ही भरता है।
स्त्री को अब जरुरत अपने हक़ों को चिल्ला कर मांगने की ही नहीं उसे खुद के स्तर पर परिवर्तन लाने की भी है। न तो यह वक़्त अपने हक़ों के लिए सजग ना रहने का है ना सिर्फ़ और सिर्फ़ चिल्लाने का ।
हमे अपनी निरंतरता और तटस्थता कायम रखनी है, ये नहीं कि किसी भी पारिवारिक बहस के दौरान हमें सारा स्त्री-विमर्श याद आ जाये और दूसरे ही पल हम अपनी इच्छा से त्याग की मूर्ति,पाँव की जुती बन स्वयं को कृतार्थ मानें । मौके हम स्वयं भी देते हैं । गलत को गलत हर हाल में कहना ही होगा। उसे प्यार या फ़र्ज़ का नाम देकर सही सिद्ध करने की आदत हमें भी छोड़नी होगी ।
पारुल सिंह
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