Tuesday, September 24, 2013

मुझे मेरे नाम से पुकारो



पत्थर सी हो चुकी हूँ मैं एक बार पुकारो 
तुम एक बार मुझे मेरे नाम से पुकारो 

तुमने किसी अजनबी को भी तो कभी
मुलाक़ात में पहली नाम से पुकारा होगा 
अन्जाने सही,  तुम्हारे अपनेपन का अहसास 
कितनो  के दिलो का सहारा होगा 


पत्थर सी हो चुकी हूँ मैं एक बार पुकारो 
तुम एक बार मुझे मेरे नाम से पुकारो 

शायद ढुलक जाये कोई आँसू 
इन पथरायी आँखों के दरीचों  से                       
कोई अहसास जाग जाये शायद 
तेरे लफ्जों की हरारत से 

पत्थर सी हो चुकी हूँ मैं एक बार पुकारो 
तुम एक बार मुझे मेरे नाम से पुकारो 

क्यूँकि अब मेरी रूह को 
कोई अहसास नहीं होता 
ख़ुशी का भी नहीं होता 
गम का भी नहीं होता 

पास से गुजरने वाली सोंधी हवा 
का भी अहसास नहीं होता 
सावन में पड़ने वाली काँच सी 
पहली बूंद का भी अहसास नहीं होता 
और उस आखिरी का भी नहीं होता 
जो बारिश के बाद किसी पत्ती टपकती है 

पत्थर सी हो चुकी हूँ मैं एक बार पुकारो 
तुम एक बार मुझे मेरे नाम से पुकारो 

पत्थर हो चुकी हूँ मैं 
पर सुनती तो हूँ 
वो जो तुम कहोगे मुझे 
उसके लिए तरसती तो हूँ 

तल्खियों ने जिंदगी की माना 
छीन ली मेरी मुस्कान 
पर एक बार जो आये 
तेरे होंठो पर मेरा नाम 
मैं फिर से बोल तो सकती हूँ 

पत्थर सी हो चुकी हूँ मैं एक बार पुकारो 
तुम एक बार मुझे मेरे नाम से पुकारो 

छू लो एक बार मुझे उस लरजिश से 
कि बह निकले आँसुओं में नाउम्मीदी मेरी
कह दो एक बार कि लौट आया हूँ मैं 
जिसे ढूंढ़ती  रहती थी तन्हाईयाँ  तेरी 
        
पत्थर सी हो चुकी हूँ मैं एक बार पुकारो 
तुम एक बार मुझे मेरे नाम से पुकारो 
         
पत्थर के बुत को इंसा बनाना
तुम्हे आता तो है 
तुम्हे आता तो है 
इन बेपरवाह जुल्फों को संवारना 

बहते अश्कों को पौंछना 
तुम्हे आता तो है 
तुम्हे आता तो है 
अपने प्यार भरे हाथों से मुझे थामना 
        
पत्थर सी हो चुकी हूँ मैं एक बार पुकारो 
तुम एक बार मुझे मेरे नाम से पुकारो 

तुम जो पुकारोगे मुझे
अपना कह कर 
मुझे मेरी कसम है 
कोई सवाल नहीं पूछूंगी पलट कर 
         
पत्थर सी हो चुकी हूँ मैं एक बार पुकारो 
तुम एक बार मुझे मेरे नाम से पुकारो 
        
       
नहीं पूछूंगी कि इतने बरस  
सोचा नहीं क्यूँ मुझे कभी 
नहीं पूछूंगी कि अब कंहा मिलेंगे 
वो सपने हमारे थे जो कभी 

नहीं पूछूंगी तेरे इंतजार की रात थी  
क्यूँ मिलन की सुबह नहीं थी मैं 
नहीं पूछूंगी साथ तो थी पर 
कभी तुझ में शामिल क्यूँ नहीं थी मैं 

मै फिर से जी उठूँगी
मैं बस खिल उठूँगी 
मैं बस रोते रोते हँस दूँगी 
मैं फिर से बोल उठूँगी 
मैं बस पीछे पीछे तेरे नज़र झुकाए चल दूँगी

पत्थर सी हो चुकी हूँ मैं एक बार पुकारो 
तुम एक बार मुझे मेरे नाम से पुकारो 

                                      पारुल सिंह 

2 comments:

  1. बेहद खूबसूरत
    उत्कृष्ट प्रस्तुति.सुन्दर रचना .

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