Thursday, December 4, 2014

खिड़कियाँ

नए मौसमों की दस्तक 
जब भी देती हैं हवाएँ 
मेरे कमरे की खिड़कियाँ 
सिमट कर कुछ और 
भिड़ जाती हैं। 
गली,मौहल्लों में खुलने वाली खिड़कियाँ 
बंद ही रखी जाती हैं। 
सदियों से। 
                            पारुल सिंह 

4 comments:

  1. Khidkiyan hata dijiye...taza hava aane dijiye...aesi khidkiyon ka kya kije jo naye mausam ki hava ko bheetar hi n aane de :-)

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  2. ​प्रिय पारुल

    बहुत बढ़िया ! तुम्हारी ही तरह सुंदर, और मन को छू जाने वाली कविता !

    क्या मालूम कब दस्तक दें वो
    मन की खिड़की खोल के रखना
    ख्वाब कहीं वो लौट ना जाएँ
    दरवाज़े पे बोल के रखना !

    तुम्हारी कलम हमेशा इतनी ही ख़ूबसूरती से चलती रहे और तुम खुश रहो !

    सस्नेह

    सर्व

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  3. नव वर्ष की शुभकामनाएं देने, प्रभात अब आया है ।
    ..सुन्दर नववर्ष रचना ..
    मैं भगवान से प्रार्थना करता हूँ आपका आने वाला और अगले हर वर्ष खुशियाँ और सुख - आनंद से परिपूर्ण हो , सपरिवार सुखी - संपन्न रहें !

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