कभी-कभी ऐसे बात करते हो
के एक दम रूहानी सा
तिलिस्म बिछ़ा देते हो
मुझ से तुम तक।
कुछ भी दरमिया नही।
मीलों की दूरी नही,हवा नही,
दरख्त,दरिया कुछ भी तो नही।
बस करोड़ों ध्वल रोशनी-पुजँ।
इधर मैं उधर तुम,
ना कोई लफ्ज़ ना आवाज।
बस दो जोड़े मुस्कुराती आँखें
एक दूसरे से जुड़ी हुई,
" मैं यहाँ हूँ"
"हाँ तुम हो"
"मैं यहाँ हूँ"
"हाँ तुम हो"
"मैं हूँ"
"जानती हूँ"।
पारूल सिंह
के एक दम रूहानी सा
तिलिस्म बिछ़ा देते हो
मुझ से तुम तक।
कुछ भी दरमिया नही।
मीलों की दूरी नही,हवा नही,
दरख्त,दरिया कुछ भी तो नही।
बस करोड़ों ध्वल रोशनी-पुजँ।
इधर मैं उधर तुम,
ना कोई लफ्ज़ ना आवाज।
बस दो जोड़े मुस्कुराती आँखें
एक दूसरे से जुड़ी हुई,
" मैं यहाँ हूँ"
"हाँ तुम हो"
"मैं यहाँ हूँ"
"हाँ तुम हो"
"मैं हूँ"
"जानती हूँ"।
पारूल सिंह
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