Wednesday, January 1, 2014

नाटक समीक्षा -- "जनपथ किस" , श्री राम सेंटर,मंडी हॉऊस , दिनाँक - 20/12/2013

"जनपथ किस" नाटक इन्सानी ऊहापोह से उपजे भावनाओं के उस विस्फोट को दर्शाता है जो जन्मता है सही और आदर्श जीवन के मापदंडो और इंसान की नैसर्गिक इच्छाओ के संघर्ष से। 
सामाजिक,पारिवारिक,आर्थिक व राजनीतिक सरोकारो को समाज द्वारा निर्मित परिभाषाओ के अनुरूप संपन्न करते हुए नायक एक दिन प्रतिकार कर उठता है, और ये प्रतिकार उसके ह्रदय के अंतरकोश को संतुष्ट करता है।  
दूसरो के बनाये ढर्रे पर चल कर एक आदर्श जीवन जीते हुए अपनी इच्छाओ के अनवरत दमन से उपजी कुंठा नायक के विरोध के रूप में  परिणित होती है। 
विरोध प्रदर्शन का तरीका नि:संदेह यथार्थ के धरातल पर अमान्य व अनैतिक है किन्तु नायक अपने इस निर्णय से संतुष्ट दिखायी देता है और अन्त तक अपने निर्णय को सही मानता है क्यूंकि सही और गलत के मापदंड अब उसके अपने हैं जो सिर्फ उसकी इच्छाओ,भावनाओ पर आधारित है।  
                                                          



नायक सदानंद जो कि एक बड़े नेता की छतर छाया में एक भ्रष्ट व घूसखोर अधिकारी है। गाँव में रहने वाले माता पिता पत्नी,बच्चो के लिए आदर्श पुत्र,पति और पिता बने रहने का भार उसके कंधो पर है। वह इस आदर्शवाद के साथ एक औऱ जीवन जी रहा है जिसका मूलमंत्र है कि जीवन में नैतिक अनैतिक हर तरह से आनंद लो बस किसी को ज्ञात न हो। तथाकथित आदर्श समाज के इस दोगलेपन को नाटक में बहुत प्रवीणता से चित्रित किया गया है। इन्ही मानसिक द्वंदों से गुजरते हुए वह एक दिन जनपथ पर राह चलती एक अन्जान लड़की मीरा चन्दानी को चूम लेता है व अंत तक इसे सही मानता है।                 

नेता अपने प्रभाव से नौकरशाही और न्यायपालिका का अपने हित हेतु किस प्रकार उपयोग करते है, नाटक उस पर तीखा कटाक्ष करता है।  गांव में रहने वाली पत्नी की गाय से की गयी तुलना अंतर्मन को एक ही दृश्य में झंकझोर जाती है, स्त्री के लिए निषेध को भोगकर समाज के समक्ष आदर्श वादी बने  रहकर नायक की पत्नी का पात्र साबित करता है कि मानसिक दबावों में  स्त्री पुरुष की तुलना में परिस्थितियों को स्वयं के अनुकूल जल्दी कर लेती है। शादी के कुछ वर्षो पश्चात् भी वह गाय ही बनी रहती है किन्तु मरखनी गाय। समाज उस से यही तो चाहता है कि वह गाय बनी रहे मरखनी या सीधी गाय तो गाय है। 

                                                      
नाटक दहेज़ के मुद्दे को भी उठता है। हास्य के दृश्य अच्छे बन पड़े हैं किन्तु कुछ स्थानो पर द्विअर्थी संवादो को टाला जा सकता था। शुरुआत में पुलिस वालो का अभिनय बहुत ही बचकाना है।  मीरा चंदानी के माता पिता का  हास्य दृश्य काफ़िया युक्त संवादो के कारण जानदार बन पड़ा है।  सभी कलाकारो का अभिनय व संवाद अदायगी उच्च कोटि की है ,मीरा चन्दानी  और पुलिस वालो के पात्रो  को छोड़कर। नाटक में आंचलिक नृत्य कौशल तथा संगीत का प्रदर्शन बेहद प्रभावित करता है।  प्रकाश व्यवस्था और अच्छी हो सकती थी। अखिलेश्वर झां की परिकल्पना तथा रंजीत कपूर का निर्देशन बहुत अच्छा है। यदि आप कल्पनाशील है कल्पनाओ की दुनिया तितली,फूलो की  दुनिया में विश्वास करते है और इसे यथार्थ की दुनिया के समकक्ष मानते है तो ये नाटक आप देख सकते है।  यदि ऐसा नहीं मानते तो उस दुनिया की सिर्फ सैर हेतु भी ये नाटक देखा जा सकता है। 

                                                                                                           पारुल सिंह 




3 comments:

  1. nice informative post.. thanks for sharing..
    Nav-Varsh ki shubhkamnayein..
    Please visit my Tech News Time Website, and share your views..Thank you

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