Tuesday, June 12, 2012







जानलेवा  यें  तन्हाईया  नहीं  भाती
क्यूँ  सदा  भी  कोई  इधर  नहीं आती 

एक  जरा  सी  किरण  भी  उजाले   की
इस तीरगी  मैं  नज़र  नहीं  आती 

कुछ  तेरा  गम  कुछ  अपनी  मसायल
नींद  अब  शब भर  नहीं  आती 

जब  आने  का  वादा कर  जाता  है  वो
बस  फिर  सहर  नहीं  आती 

वो  जो  कहते  थे  हरदम  हूँ  साथ
ख्वाबो  मैं  भी  शक्ल नज़र  नहीं  आती 

दिल  बेकरार  पुरजोर  हो चला  तेरा
 
बहलने  की  सूरत  नज़र  नहीं  आती 





7 comments:

  1. बहुत अच्छी रचना है आपकी...थोडा सा प्रयास करें आप ग़ज़ल कहना सीख जाएँगी...आपके पास भाव और भाषा दोनों हैं...बधाई स्वीकारें.

    नीरज

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  2. नीरज जी बहुत बहुत शुक्रिया हौसला अफजाई के लिए .....जी अभी बहुत कुछ सिखने की जरुरत है मुझे..

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  3. बढ़िया प्रयास पारुल जी...
    नीरज जी ने सही कहा.....
    ढेर सारी शुभकामनाएं.........

    अनु

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  4. .


    आदरणीया पारुल जी
    नमस्कार !

    जब आने का वादा कर जाता है वो
    बस फिर सहर नहीं आती

    वाऽऽह… !
    अच्छे भाव सुंदर शब्दों में ढल गए हैं …

    …आपकी लेखनी से और सुंदर रचनाओं का सृजन हो …
    शुभकामनाओं सहित…

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  5. अनु जी और राजेंद्र जी होसला अफजाई का बहुत बहुत शुक्रिया ...

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  6. बेह्तरीन अभिव्यक्ति
    आपकी कविता में भावों की गहनता व प्रवाह के साथ भाषा का सौन्दर्य भी है .उम्दा पंक्तियाँ .

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  7. यूँ तो तेरी याद कभी अकेले नहीं आती
    ये अपने साथ तेरी बाते ,वो अफसाने
    मेरी चुप्पी ,तेरे अहसास , क्या -क्या नहीं लाती
    बहुत सुंदर लिखा है दीदी

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