Monday, September 4, 2017

वो ये इश़्क़ ही है


दिन के जाते जाते 
बेचारे सूरज की मटकी 
फूट ही गई 
उतरते उतरते शाम की सीढ़ियाँ।
बादलों ने दोनों हाथों से 
समेटा तो बहुत आंचल में 
सूरज का पिघला सोना।
और लपेट लिपटा कर 
सूरज को किया विदा।
बादल तो डबल ड्यूटी
पर हैं आज।
रात भर बरसेंगे।
हाथ पैर झाड़ कर
जब बादल चले 
वापस अपनी-अपनी
पॉजिशन लेने।
 नाज़ुक सी बूँद सोने की।
झूम के चूम रही थी एक सांवरे से
बादल की पेशानी बार बार।
लिपटी रह गई थी बादल की लट में वो।
बादल हैरान बोला," पगली
गई क्यूँ नही। हम तो बरस रहेंगे
कुछ लम्हों में।
तो अकेली आसमान में कैसे टिकी रहेगी?"
"तो चलो मुझे भी साथ लेकर धरती पर।"
बूँद ने इठला कर कहा।
"बावली, यूँ नही जाता कोई आसमान से धरती पर
पिघल जाना पड़ता है।
नाम,तासीर सब बदल जाता है ।
रात में तो सूरज की रोशनी भी चाँदनी
बन कर बिखरती है ।
चाँद की सारी चाहत ओस बनकर
चूमती है हर ज़र्रे को।"
तो मुझे बादल बना लो मैं भी तुम्हारे
साथ बरसूंगी।
उसके लिए तो पहले मुझे जलना होगा
तुम्हारी आग में।"
"नही नही मैं ये ना कर सकूंगी
प्यार है दुश्मनी नही।"
"बावली,प्यार का निभाना इश़्क़ है।
एक हो जाना इश़्क़ है।
मैं का मिटाना इश़्क़ है।
बूँद का ताप और बादल
पिघल कर  बने पानी
और चल दिया ये इश़्क़ गाता
मुस्कुराता धरती की और।
चाँदनी रात में देखा है कभी
हँसती,इठलाती,जल्दबाज।
जो पहली बूँदें झमाझम
आकर चूमती हैं धरती को
वो ये इश़्क़ ही है।
वो ये इश़्क़ ही है ।
पारूल सिंह




 


No comments:

Post a Comment